Raja Dasharath: धर्म, त्याग और शौर्य के प्रतीक
परिचय
राजा दशरथ अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी और धर्मनिष्ठ राजा थे। वे राजा अज और रानी इंदुमती के पुत्र थे। उनका राज्य कौशल प्रदेश में स्थित था, जो वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ था। कौशल प्रदेश की राजधानी अयोध्या थी, जिसकी स्थापना राजा इक्ष्वाकु ने की थी, राजा इक्ष्वाकु भगवान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र थे, प्रारंभ में यह राज्य सरयू नदी के तट पर स्थित था ।
राजा दशरथ का नाम ‘दशरथ’ इसलिए रखा गया क्योंकि वे अपने रथ को दसों दिशाओं में तीव्र गति से दौड़ा सकते थे। वेदों के ज्ञाता, दयालु, रणकुशल और अपनी प्रजा के रक्षक राजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में असुरों और राक्षसों का नाश कर देवताओं की रक्षा की थी।
भगवान राम का जन्म
राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं—कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। लेकिन तीनों ही निःसंतान थीं, जिससे राजा दशरथ अत्यंत चिंतित रहते थे। एक दिन उन्होंने अपनी चिंता राजगुरु वशिष्ठ को बताई। इस पर राजगुरु वसिष्ठ ने उनसे कहा- “राजन! उपाय से भी सभी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। तुम श्रृंगी ऋषि को बुलाकर ‘पुत्र कामेष्टि यज्ञ’ कराओ। तुम्हे संतान की प्राप्ति अवश्य होगी।” ।
राजा दशरथ ने स्वंय श्रृंगी ऋषि के आश्रम में जाकर ऋषि श्रृंगी को आमंत्रित किया, ऋषि श्रृंगी ने दशरथ की प्रार्थना स्वीकार की और अयोध्या में आकर ‘पुत्र कामेष्टि यज्ञ’ कराया। यज्ञ की पूर्णाहुति पर अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने राजा दशरथ को एक स्वर्ण पात्र में खीर दी, जिसे तीनों रानियों में वितरित करने का निर्देश दिया।
राजा दशरथ ने वह खीर अपनी तीनों रानियों में इस प्रकार बाँटी—
आधी खीर रानी कौशल्या को दी, जिससे भगवान श्रीराम का जन्म हुआ।
एक भाग कैकेयी को मिला, जिससे भरत जन्मे।
सुमित्रा को दो भाग दिए गए, जिससे लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को, जब सूर्य, मंगल, शनि, बृहस्पति और शुक्र अपने उच्च स्थानों पर स्थित थे, कर्क लग्न में भगवान श्रीराम ने जन्म लिया। इस शुभ समाचार से संपूर्ण अयोध्या में हर्ष और उल्लास का वातावरण छा गया।
‘पुत्रकामेष्टि यज्ञ’ केवल राजा दशरथ की संतान प्राप्ति के लिए नहीं, बल्कि रावण के अत्याचारों के अंत और भगवान विष्णु के श्रीराम रूप में अवतार के लिए किया गया एक दिव्य आयोजन था।
राजा दशरथ की ‘शांता’ नाम की एक पुत्री भी थी, जिसका जन्म माता कौशल्या के गर्भ से हुआ था, जिसे इन्होने अपने मित्र अंगदेश के राजा रोमपद और रानी वर्षिणी ने गोद दे दिया था।
राजा दशरथ का पुत्र प्रेम और त्याग
श्रीराम का बचपन अत्यंत तेजस्वी और गुणवान रहा। वे माता-पिता और गुरुजनों की आज्ञा का पालन करने वाले, मर्यादा पुरुषोत्तम, और शस्त्रविद्या में निपुण थे। जब वे 16 वर्ष के हुए, तब महर्षि विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में आए और उनसे श्रीराम और लक्ष्मण को अपने साथ भेजने का अनुरोध किया, ताकि वे राक्षसों का संहार कर ऋषियों की रक्षा कर सकें।
महर्षि विश्वामित्र ने राजा दशरथ से कहा:
हे राजन! मैं एक महत्वपूर्ण यज्ञ कर रहा हूँ, लेकिन दुष्ट राक्षस बार-बार उसमें विघ्न डाल रहे हैं। मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता है। कृपया अपने पुत्र राम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेजें, ताकि वे इन राक्षसों का संहार कर सकें।”
राजा दशरथ पहले तो संकोच में पड़ गए, लेकिन गुरु वशिष्ठ के समझाने पर उन्होंने अपने पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की अनुमति दी। इस यात्रा के दौरान ऋषि ने उन्हें कई दिव्य अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान दिया, जिनका प्रयोग उन्होंने आगे चलकर राक्षसों के संहार में किया। यात्रा के दौरान वे ताड़का वन पहुंचे, जो राक्षसी ताड़का के कारण उजाड़ हो चुका था। ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा:
“हे राम, यह राक्षसी बहुत शक्तिशाली है और ऋषियों को कष्ट पहुँचा रही है। इसका वध करना तुम्हारा धर्म है।”
श्रीराम ने अपने धनुष से तीर चलाकर ताड़का का वध कर दिया। आगे चलकर वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ महर्षि विश्वामित्र का यज्ञ चल रहा था। जैसे ही यज्ञ शुरू हुआ, राक्षस मारीच और सुबाहु अपनी सेना के साथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराम ने मारीच को एक दिव्य बाण से दूर समुद्र में फेंक दिया और सुबाहु को मार डाला। इसके बाद ऋषि विश्वामित्र का यज्ञ सम्पन्न हुआ और फिर ऋषि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर मिथिला (जनकपुर) गए, जहाँ राजा जनक का सीता स्वयंवर हो रहा था। हाँ श्रीराम ने शिव धनुष तोड़ा और माता सीता को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त किया।
राजा दशरथ ने जब श्रीराम के विवाह के बाद उनके राज्याभिषेक की घोषणा की, तब नियति ने एक नया मोड़ लिया— रानी कैकेयी की एक कुबड़ी दासी थी, जिसका नाम मन्थरा था। उसने कैकेयी को बचपन से पाल-पोस कर बड़ा किया था और जब कैकेयी का विवाह राजा दशरथ के साथ हुआ तो वह भी मानो दहेज में उसके साथ भेजी गई थी। मन्थरा एक कुटिल राजनीतिज्ञ थी। उसने तुरंत कैकेयी के मन में विष भरना शुरू कर दिया और उसने कैकेयी को राजा दशरथ से अपने दो वर माँगने की सलाह दी।
मंथरा ने कैकेयी से कहा—
“महारानी! क्या आपने सोचा है कि यदि राम राजा बन गए, तो आपकी और आपके पुत्र भरत की क्या स्थिति होगी? कौशल्या महारानी बन जाएंगी, और आपको एक साधारण रानी की तरह रहना पड़ेगा। भरत को कोई नहीं पूछेगा, और तुम्हारा महत्व भी समाप्त हो जाएगा। यदि तुम चाहो, तो इस स्थिति को बदल सकती हो!”
कैकेयी ने पहले इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन मंथरा के निरंतर भड़काने पर उनके मन में संदेह उत्पन्न हो गया।
कैसे मिला कैकेयी को वरदान का अधिकार?
यह घटना उस समय की है, जब दशरथ देवों के साथ मिलकर असुरों के विरुद्ध युद्ध कर रहे थे। असुरों को खदेड़ते समय उनका रथ युद्ध के फलस्वरूप रक्त, पसीने तथा मृतक शरीर में फँस गया। उसी समय किसी शत्रु ने युधास्त्र चला कर दशरथ को घायल कर दिया तथा वह मरणासन्न हो गये। वे अपने रथ से गिरने वाले थे, लेकिन ठीक उसी समय उनकी रानी कैकेयी ने वीरता दिखाते हुए उनके रथ की बागडोर संभाली और युद्धक्षेत्र से उन्हें सुरक्षित निकाल लिया। कैकेयी ने उनकी पूरी देखभाल की और उनके घावों को भरने में मदद की।
इससे प्रभावित होकर राजा दशरथ ने अत्यंत प्रसन्न होकर कैकेयी से कहा—
“प्रिय कैकेयी! तुमने आज मेरी प्राणरक्षा की है। मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो, मुझसे दो वरदान मांग सकती हो। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि जब तुम चाहोगी, मैं तुम्हारी इच्छाओं को अवश्य पूरा करूंगा।”
कैकेयी उस समय बहुत प्रसन्न थीं, लेकिन उन्होंने कहा कि वे अभी कोई वरदान नहीं मांगेंगी। वे उचित समय आने पर इन वरदानों का उपयोग करेंगी। राजा दशरथ ने भी उनकी यह बात मान ली और उन्हें दो वरदान देने का वचन दे दिया।
कैकेयी ने राजा दशरथ से मांगे दो वरदान
मंथरा के षड्यंत्र में फंसकर कैकेयी ने कोप भवन (रुष्ट कक्ष) में प्रवेश कर लिया। जब राजा दशरथ को इस बात का पता चला, तो वे तुरंत उसे मनाने वहां पहुंचे। उस काल में रनिवास में एक कोप भवन होता था, जहाँ कोई भी रानी किसी भी कारणवश कुपित होकर अपनी असहमति व्यक्त कर सकती थी और राजा का कर्तव्य होता था कि उसे कोप भवन के प्रांगण में जाकर उस रानी को मनाना पड़ता था। राजा दशरथ ने भी वैसा ही किया।
दशरथ ने कैकेयी से पूछा—
“प्रिय कैकेयी! तुम इस प्रकार क्रोधित और दुखी क्यों हो? यदि तुम्हें मुझसे कोई शिकायत है, तो बताओ। मैं तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूंगा।”
तब कैकेयी ने बड़ी ही चतुराई से राजा दशरथ को उनके द्वारा दिए गए दो वरदानों की याद दिलाई और कहा—
पहला वरदान:”
मैं चाहती हूं कि मेरे पुत्र भरत को अयोध्या का राजा बनाया जाए और उनका राजतिलक तुरंत किया जाए।”
दूसरा वरदान:
“राम को 14 वर्षों के लिए वनवास भेज दिया जाए, ताकि वे किसी भी प्रकार से अयोध्या के सिंहासन के लिए बाधा न बनें।”
राजा दशरथ का हृदयविदारक दुःख
कैकेयी की ये बातें सुनकर राजा दशरथ को गहरा आघात लगा। वे अपने सबसे प्रिय पुत्र राम से अत्यधिक स्नेह करते थे। उन्होंने कैकेयी को बहुत समझाने की कोशिश की।
उन्होंने कहा—
“हे कैकेयी! यह तुम क्या मांग रही हो? राम तुम्हारा भी पुत्र है, वह धर्मनिष्ठ और मर्यादा पुरुषोत्तम है। वह कभी भी भरत के राज्याभिषेक का विरोध नहीं करेगा। तुम कृपा करके अपने वरदानों को वापस ले लो।”
लेकिन कैकेयी अपनी जिद पर अड़ी रहीं। उन्होंने राजा दशरथ को उनके दिए गए वचन की याद दिलाई और कहा कि यदि वे अपने वचन से मुकरते हैं, तो यह एक क्षत्रिय और रघुकुल के राजा के लिए अनादर की बात होगी।
राजा दशरथ असहाय होकर रोने लगे, लेकिन उन्होंने रघुकुल की परंपरा निभाते हुए कैकेयी के दोनों वरदान मान लिए।
राम का वनवास और दशरथ का दुखद अंत
जब श्रीराम को इस विषय की जानकारी मिली, तो उन्होंने बिना किसी द्वेष या विरोध के इसे स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा—
“यदि मेरे वनवास जाने से पिताजी का वचन पूरा होता है और माता कैकेयी प्रसन्न होती हैं, तो मैं सहर्ष इसे स्वीकार करता हूं।”
राम, माता सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए चले गए। उनके वियोग में राजा दशरथ अत्यंत दुखी हो गए।
राम के वियोग की पीड़ा सहन न कर पाने के कारण राजा दशरथ को श्रवण कुमार के माता-पिता द्वारा दिए गए शाप की याद आई, और कुछ ही दिनों में उन्होंने राम-राम कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
शब्दभेदी बाण और राजा दशरथ का शाप
राजा दशरथ का जीवन एक दुखद शाप से भी प्रभावित था। एक बार वे आखेट के लिए जंगल गए और वहां उन्होंने नदीं में हाथी के पानी पीने के समान आवाज़ सुनकर शब्द-भेदी बाण चलाया था, जिससे श्रवण कुमार नामक एक नवयुवक, जो अपने अंधे माता-पिता को लेकर तीर्थयात्रा पर निकला था और उस समय नदी से माता-पिता की प्यास बुझाने के लिए जल पात्र में भर रहा था, की दर्दनाक मृत्यु हो गई। पुत्र की मृत्यु के बाद अन्धे माता-पिता ने भी तड़प कर मरते हुए राजा दशरथ को शाप दिया कि- “तुम भी हमारी ही तरह पुत्र के शोक में तड़प -तड़प कर मरोगे और अंततः वही हुआ, श्रवण कुमार के माता-पिता की तरह राजा दशरथ भी पुत्र वियोग में व्याकुल हो उठे और राम-राम कहते हुए अपने प्राण त्याग दिये।
राजा दशरथ की विशेषताएँ:
- पराक्रमी और महान योद्धा
दशरथ अद्वितीय योद्धा थे और उन्होंने कई युद्धों or devasur sangram में विजय प्राप्त की थी।
- धर्मपरायण और न्यायप्रिय शासक
वे धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने वाले राजा थे।
उनकी प्रजा उन्हें अत्यंत प्रिय मानती थी क्योंकि वे न्यायप्रिय थे और सदैव सत्य का पालन करते थे।
- त्यागी और प्रतिज्ञा के पालनकर्ता
उन्होंने कैकेयी को दिए हुए वरदानों के कारण अपने प्रिय पुत्र राम को वनवास भेज दिया, जिससे उनकी सत्यनिष्ठा और प्रतिज्ञा-पालन की महानता प्रकट होती है।
- परम भक्त और मर्यादा पुरुषोत्तम के पिता
वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे और उनके पुत्र श्रीराम स्वयं विष्णु के अवतार थे।
वे अपने पुत्रों से अत्यधिक प्रेम करते थे, विशेष रूप से श्रीराम से।
- शक्तिशाली और समृद्ध राजा
उनके शासन में अयोध्या अत्यंत समृद्ध और खुशहाल थी।
उनके पास अपार धन-संपत्ति और विशाल सेना थी।
- संतानों की प्राप्ति के लिए यज्ञ करने वाले राजा
उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था, जिसके फलस्वरूप श्रीराम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ।
- करुणाशील और भावुक हृदय वाले
जब उन्होंने राम को वनवास देने का निर्णय लिया, तो वे अत्यंत दुखी हो गए और अंततः पुत्र-वियोग में उनका देहांत हो गया।
राजा दशरथ से हम क्या सीख सकते हैं?
धर्म और सत्य की रक्षा सर्वोपरि है – राजा दशरथ ने अपने वचन का पालन किया, भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्रिय पुत्र का त्याग करना पड़ा।
पुत्रमोह में भी कर्तव्य निभाना आवश्यक है – उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रेम से ऊपर उठकर राजधर्म निभाया।
बिना विचारे कर्म करने से पश्चाताप होता है – श्रवण कुमार की हत्या अनजाने में हुई एक गलती थी, लेकिन इसका परिणाम अत्यंत दुखद हुआ।
कुटिलता और गलत संगत से बचना चाहिए – कैकेयी यदि मंथरा के प्रभाव में न आतीं, तो शायद दशरथ का परिवार विघटन से बच सकता था।
संस्कारों और परंपराओं का पालन करना चाहिए – श्रीराम ने राजा दशरथ के आदर्शों को आगे बढ़ाया और अपने कुल की रीति को बनाए रखा।
“राजा दशरथ का जीवन त्याग, धर्म और सत्य की सर्वोच्चता का प्रतीक है।”
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